उठो रोज़ेदारों उर्फ़ जुम्मन चाचा
उठो रोज़ेदारों उर्फ़ जुम्मन चाचा
अनवर सुहैल
जब हम
दुबके होते थे लिहाफ़ों में
खोए रहते थे नींद की आगोश में
और अचानक बाहर गली में गूंज उठती थी
लाठी की ठक ठक के साथ
एक लरज़ती सी आवाज़
'उठो रोज़ेदारों सुबह हो गई'
ये जुम्मन चाचा की आवाज़ हुआ करती थी
जुम्मन चाचा चलते जाते थे
उन्हें बहुत कम समय में
तय करनी होती थी एक लम्बी दूरी
मस्जिद पारा से मौहार पारा तक
चैनपुर से रेल्वे कालोनी तक
उनके हाथ में होती थी लाठी एक
दूसरे हाथ में मंद मंद जलती लालटेन
बडा ही रहस्यमय व्यक्तित्व था
जुम्मन चाचा का
सुनकर उनकी खनकदार आवाज़
जाग उठती थी अम्मी पहले
भिड जाती थीं रसोई में
सहरी बनाने के लिए
जलाती थीं चूल्हा
रोटियां बन जाने के बाद
जगाती थीं अब्बा को
कि उठिए, बचा है वक्त बहुत कम
सहरी के लिए
जुम्मन चाचा की मौत के बाद
मजबूरन खरीदीं गई अलार्म घडियां
उनमें जितनी भरी जाती थी चाभी
उतनी देर बजता था अलार्म
हर साल रमज़ान के चांद से पहले
जान मोहम्मद घडीसाज़ से
घडी रिपेयरिंग करवाते थे अब्बा
किसी रोज़ खुल नहीं पाती नींद गर
तो बिना सहरी खाए अब्बा
रखते थे रोज़ा
और बडबडाते थे सारा दिन
शैतान के बहकावे में आकर
सहरी में न उठ पाने से दुखी रहते
सारा दिन
बदलते ज़माने के साथ
घर आई बैटरी से चलने वाली क्वार्ट्ज़ घडियां
जिन्हें जब तक बंद न किया जाए
बजती ही रहती हैं मुई
और अब तो
हर घर में है मोबाईल
जुम्मन चाचा को जानने वाली
पीढी भी नहीं रही...
लेबल: anwar suhail, kavita, ramzan, roza